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पुण्यपुरुष
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बदला लेने, यहाँ तक कि उसे मौत के घाट उतार देने के लिए बेचैन हो रहा था । सच ही कहा गया है कि "नल बल जल ऊँचो चढ़े, अन्त नीच को नीच" - धवल सेठ स्वभाव से ही नीच था और वह नीचता उसकी रग-रग में समाई हुई थी ।
साँझको ही नगरी में इधर-उधर घूमकर उसने किसी अपने जैसे ही व्यक्ति को खोजकर उससे एक गोह खरीद ली थी । लम्बी, रेशमी डोर भी उसने जुटा ली थी ।
बस, अब उसका इरादा स्पष्ट था - रात्रि की निस्तब्धता में, अन्धेरे में, वह श्रीपाल के आवास के नीचे तक चुपचाप पहुँचेगा । वहाँ से वह रस्सी से बँधी उस गोह को आवास की छत पर फेंक देगा, सधी-सधाई गोह छत से चिपक जायगी और फिर वह धवल सेठ रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ जायेगा ।
बस, फिर तो जरा-सी सावधानी और साहस का ही काम है - पैनी छुरी उसने अपनी कमर में खोंस ही रखी है । द्वाररक्षक की दृष्टि बचाकर एक-दो क्षण के लिए श्रीपाल के कक्ष में घुस पड़ना है और उसकी शय्या तक पहुँचकर ' धप्प' से छुरिका उसके पेट में घुसेड़ देनी है..........
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यही सारी योजना अपने मस्तिष्क में दुहराता हुआ, धवल सेठ अर्धरात्रि को अपने शिविर से निकल पड़ा । उसने काले वस्त्र धारण कर रखे थे ताकि वे प्रगाढ़ अन्ध
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