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१६० पुण्यपुरुष इस कोंकण प्रदेश का तट छोड़कर दूर चले जाओ। यदि कल सूर्योदय के पश्चात् तुम यहाँ दिखाई पड़े तो अपनी मृत्यु निश्चित जानना।"
राजा की आज्ञा सुनकर सैनिकों ने धवल सेठ के बन्धन खोल दिये। मुँह लटकाए, लज्जित होकर वह राजसभा से निकल गया। x x x x
रात्रि निस्तब्ध थी, काली थी। चन्द्रोदय हुआ नहीं था। किन्तु राजमहल असंख्य दीपकों से जगमगा रहा था। इसी भव्य राजप्रासाद के किसी विशाल खण्ड में श्रीपाल अपनी तीनों प्रिय रानियों से अतीत की सारी बातें करते हुए धीरे-धीरे निद्रा देवी को गोद में चला गया था। मध्यरात्रि का गजर बज चुका था। ऐसा प्रतीत होता था कि सारी सृष्टि दिन भर की थकान के बाद अब विश्राम कर रही है। केवल राजमहल तथा नगर के पहरेदार ही जाग रहे थे और बीच-बीच में 'जागते रहो' अथवा 'सावधान' के शब्द जोरों से पुकार उठते थे। उसके बाद पुनः शान्ति व्याप्त हो जाती थी।
सारी नगरी चैन से सो रही थी, किन्तु उस पापो धवल सेठ की आँखों में नींद नहीं थी। उसका मस्तिष्क भी शान्त नहीं था और उसमें षड्यन्त्र की कड़ियाँ एक दूसरी से जुड़ रही थीं। श्रीपाल के समस्त उपकारों को भुलाकर, उसकी महानता को भुलाकर वह श्रीपाल से
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