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पुण्यपुरुष
कि कभी न कभी ये दोनों राजकुमारियाँ उसके वश में हो ही जायेंगी । आखिर कब तक ये श्रीपाल की याद में अपने चढ़ते हुए यौवन की उद्दाम पिपासा को वश में रख सकेंगी ?
यही विचार करते हुए धवल सेठ ने अपनी यात्रा जारी रखी।
उस समय समुद्र में पवन की दिशा दक्षिणमुखी थी । अतः वे सभी यान पवन की ही दिशा में तेजी से चलते हुए एक दिन कोंकण देश के समुद्र तट पर ही आ लगे । धरती को देखकर धवल सेठ ने वहीं लंगर डालने का आदेश दे दिया और वे लोग उस तट पर ठहर गये ।
आवश्यक विश्रामादि से निवृत्त होकर धवल सेठ बहुत सारी सामग्री लेकर कोंकण नरेश की राजसभा में जा पहुँचा । राजा के चरणों में उसने बहुमूल्य भेंट रखी । राजा प्रसन्न हुआ ।
किन्तु उसी समय धवल सेठ की दृष्टि राजा के समीप ही बैठे श्रीपाल पर पड़ी और उसे देखकर उसके पैरों तले से धरती खिसक गई । भय के मारे वह काँपने लगा । उसने सोच लिया कि अब तो मौत आ ही गई। यह श्रीपाल अब अवश्य ही सारे तथ्य राजा के समक्ष प्रकट करके उसे फाँसी पर चढ़वा देगा ।
धवल सेठ भय के मारे काँप रहा था । राजा ने यह देखा और पूछा
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