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________________ पुण्यपुरुष १३७ हुए मिल गये । अतः अब श्रीमान से हमारी यही प्रार्थना है कि आप हमारे साथ राजमहल में पधारने की कृपा करें।" . इतना कहकर वह नायक श्रीपाल के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। . श्रीपाल मन में विचार कर रहा था कि यह भी विचित्र संयोग है । वह तो इस चिन्ता में था कि अब क्या करना होगा, कैसे मदनसेना और मदनमंजूषा को खोजना होगा, कैसे चम्पानगरी पहुँचना होगा-किन्तु यहाँ तो भावी ने सब कुछ पहले से ही निर्धारित कर रखा है। महाराज वसुपाल के सहयोग से इस कार्य में सहायता स्वयं ही मिल जायगी। यही सब विचारकर श्रीपाल उन सैनिकों के साथ एक सुन्दर, सजे हुए अश्व पर बैठकर चल पड़ा। वे लोग कुछ ही दूर गये थे कि स्वयं राजा वसपाल अपने मन्त्री तथा अन्य सेवकों के साथ उसे मार्ग में ही आते हुए मिल गये । राजा वसुपाल ने देखा-नैमित्तिक का कथन असत्य तो नहीं हुआ। यह जो व्यक्ति आज के दिन समुद्र के किनारे, चम्पक वृक्ष के नीचे सोया हुआ मिला है वह सचमुच ही पुण्य और प्रताप की किरणें बिखेरता हुआ प्रतीत होता है । प्रकट में उसने श्रीपाल से कहा___ "हमारे पुण्यों का उदय हुआ है कि आप इस देश में पधारे । आपका स्वागत है। आप हमारे भावी जामाता हैं। आइये हमारे साथ, पधारिए।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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