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________________ १३४ पुण्यपुरुष कि श्रीपाल को समाप्त कर ही देना चाहिए। बस, फिर तो उसके पौ-बारह हैं। सम्पत्ति भी मिलेगी और सुन्दरियां भी। धवल सेठ अवसर की ताक में रहने लगा। उधर सेठ के इस षड्यन्त्र से सर्वथा अनभिज्ञ श्रीपाल आनन्द के साथ अपना काल-यापन कर रहा था। उसकी दोनों पत्नियाँ सगी बहनों के समान एक दूसरी से स्नेह करती थीं। डाह का कोई प्रश्न ही नहीं था। मदनसेना और मदनमंजूषा के इस प्रेम को देखकर श्रीपाल भी परम सन्तुष्ट था । आज के युग में तो एक पुरुष की दो पत्नियां शायद आपस में लड़ ही मरें, किन्तु वह युग दूसरा ही था। वे व्यक्ति भी दूसरे ही थे और उन व्यक्तियों के व्यक्तित्व भी अनोखे थे, उच्च थे। एक दिन धवल सेठ श्रीपाल की नौका पर आया और नौका देखने के बहाने श्रीपाल के साथ इधर-उधर घूमने लगा। घूमते-घूमते वह एक मचान पर चढ़ गया और नीचे समुद्र की ओर देखते हुए, आश्चर्य प्रकट करते हुए बोल पडा___"अरे भाई श्रीपाल! देखो तो कैसे आश्चर्य की बात है। अहा, एक मगरमच्छ ऐसा है जिसके एक के स्थान पर आठ मुख हैं । ऐसा तो कभी देखा नहीं । आओ आओ, देखो।" श्रीपाल स्वच्छ, शुद्ध, सरल हृदय वाला व्यक्ति था। धवल सेठ के मन में क्या पाप छिपा है, इसकी उसे गंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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