SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३. पुण्यपुरुष था। किन्तु अब सब कुछ स्मरण में आ गया है। प्रभु की लीला भी विचित्र है। किन्तु आप........आपका शुभ नाम ?" "श्रीपाल।" ."अहा ! कितना सुन्दर, कैसा शुभ नाम है-श्रीपाल!" -राजा कनककेतु भाव-विभोर हो रहे थे। किन्तु फिर स्वयं को संयत करते हुए उन्होंने श्रीपाल से कहा . "चलो, श्रीपाल, राजभवन में चलो, तुम्हें मेरी पुत्री स्वीकार करनी ही पड़ेगी........" "किन्तु राजन्........" "अरे बेटा श्रीपाल ! कौन सा किन्तु और कहाँ के राजन् ? चलो चलो, यह तो विधि का शुभ लेख है, पूर्व निश्चित है। वीतराग मुनिवर के वचन क्या त्रिकाल में भी असत्य हो सकते हैं ? चलो-चलो, मदन बिटिया की माता चिन्ता कर रही होगी।"- इतना कहकर राजा कनककेतु आनन्द के उल्लास में हँस पड़े और आगे बोले"किन्तु जब वह तुम्हें देखेगी तब उसकी सारी चिन्ता परम हर्ष की पावन बेला में परिणत हो जायगी। चलो।" राजा कनककेतु ने श्रीपाल की एक न सुनी। भव्य समारोह के साथ उसी दिन श्रीपाल का पाणिग्रहण राजकुमारी मदनमंजूषा से हो गया। उस दिन उस रत्नद्वीप के असंख्य रत्न अपनी जगरमगर आँखों से आनन्द की अपरिमित प्रकाश-वर्षा कर रहे थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy