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________________ पुण्यपुरुष १२६ राजा कनककेतु ने श्रीपाल के दोनों कन्धों पर अपने हाथ रखते हुए कहा___ "ओ महाभाग वीरपुरुष ! क्षमा करो। बेटी को लौटने में बहुत देर हुई, तुम्हें मैंने यहाँ देखा और मुझे भ्रम हुआ। मैं और मेरी सारी प्रजा तुम्हारी कृतज्ञ है। तुमने तो अकेली मदन का ही नहीं, हम सबका जीवन बचा लिया। तुम्हारी वीरता को धन्य है । तुम्हारे धीरज को धन्य है। तुम्हारी शालीनता अनुपम है। क्षमा करो भाई !" श्रीपाल ने अपने उसी धीर-गंभीर भाव से उत्तर दिया "राजन् ! आप व्यर्थ ही चिन्ता कर रहे हैं। आपने मेरा कोई अपमान नहीं किया। यह तो सब स्वाभाविक ही था। संयोगवश मुझे आपके भी दर्शन हो गए, यही मेरा सौभाग्य है । अच्छा, अब यदि मैं आपका बन्दी नहीं हूँ तो आज्ञा चाहता हूँ........." "ठहरिए, ठहरिए महाशय ! और 'महाशय' क्या, अपरिचित होते हुए भी अब मैं तुम्हें पुत्रवत् ही मानता हूँ। मुझे कुछ स्मरण हो रहा है........बहुत समय पूर्व........ एक वीतराग मुनिवर के दर्शन मुझे अचानक, इसी वन में हुए थे, और उन्होंने कहा था, भविष्य-कथन किया था, कि उचित समय पर इसी वन में राजकुमारी के भावी पति से मेरी भेंट होगी। - "बहुत समय पहले की यह बात मैं विस्मृत हो चुका Jain Education International For Private & Personal Use Only ____www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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