________________
१२६ पुण्यपुरुष भी हो गए, यह मेरा दूसरा सौभाग्य है। अब मुझे आज्ञा दें........।"
इतना कहकर श्रीपाल ने अपने अश्व को हल्का-सा संकेत दिया और वह समझदार जानवर आगे बढ़ चला। ... राजकुमारी मदनमंजूषा के हृदय में इस समय भावनाओं का समुद्र उफन रहा था। वह श्रीपाल से जाने कितना कुछ कहना चाहती थी, उसे रोकना चाहती थी, उसका परिचय जानना चाहती थी। किन्तु वह कुछ बोल न सकी। केवल प्यासे अपलक नेत्रों से वह श्रीपाल को आगे बढ़ता हुआ देखती भर रह गई।
वन-वीथी सँकरी थी। श्रीपाल का अश्व अभी उस पर दस-पाँच कदम ही आगे बढ़ पाया था कि सामने से एकएक कर बहुत से अश्वारोही द्र तगति से उसी ओर आते दिखाई दिए। श्रीपाल के सामने पहँचकर सबसे आगे वाला अश्वारोही ठहर गया और उसके पीछे उसके अन्य साथी भी।
-आगे वाले अश्वारोही के मुखमंडल तथा वेश-भूषा से राजसी तेज प्रकट हो रहा था। और वे थे स्वयं राजा कनककेतु, राजकुमारी मदनमंजूषा के पिता । उस रलद्वीप के एकच्छत्र स्वामी। . " राजा कनककेतु ने श्रीपाल को देखा, उसके पीछे कुछ दूरी पर कुछ घबराई-सी खड़ी अपनी पुत्री तथा उसकी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org