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पुण्यपुरुष
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श्रीपाल अपने अश्व पर आरूढ़ हो चुका था । वह सज्जन पुरुष नहीं चाहता था कि सखी-सहेलियों के हँसी-मजाक के बीच में वह ' दाल-भात में मूसरचन्द ' बनकर यहाँ खड़ा रहे। अपने कर्तव्य का पालन वह कर ही चुका था । अश्वारूढ़ होकर वह बल्गा खींचने ही वाला था कि महाश्वेता का कथन सुनकर राजकुमारी ने एकदम पीछे पलटकर देखा - देवदूत ! वही देवदूत !!
पलभर राजकुमारी चकित रह गई । किन्तु फिर धीरे-धीरे सब कुछ समझ गई । वह शालीन कन्या थी । संकोच भी उसे होना स्वाभाविक ही था, किन्तु संकोच को त्याग कर अपने कर्त्तव्य का पालन करना ही उसने अधिक उचित समझा । धीमी, हंस की-सी गति से वह आगे बढ़ी, अश्वारूढ़ श्रीपाल के समीप तक आई, क्षण भर उसने श्रीपाल के नेत्रों में झाँका और फिर पलकें झुकाकर आभार प्रकट करते हुए बोली
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" अपरिचित महाभाग ! क्षमा करें, सिंह के भय से मैं मूच्छित हो गई थी। मुझे अपनी सधुबुध सम्हालने में कुछ समय लगा । आपने....आपने किसी देवदूत के ही समान इस समय यहाँ आकर हमारी रक्षा की है । हम........मैं किन शब्दों में आपका आभार प्रकट करू ? आप..
! "
"देवी ! आभार प्रकट करने की कोई आवश्यकता ही नहीं । यह तो मेरा कर्त्तव्य था जिसका निर्वाह मैं कर सका, इसकी मुझे खुशी है । आपके दर्शन
और
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