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________________ पुण्यपुरुष १२१ से अपने कमल - नेत्रों को खोला, कुछ स्मरण करने का प्रयत्न किया, जो कुछ सामने दीख रहा था उसे समझनेपहिचानने का यत्न किया, और फिर अपने समक्ष एक देवदूत को बैठा हुआ देखकर उसने अपनी आँखें फिर इस भय और आशंका से बंद कर लीं कि सिंह ने उसे खा लिया है, वह मर चुकी है, और स्वर्ग में कोई देवदूत उसके समीप बैठा है । राजकुमारी अब निरापद है, होश में आ गई है तथा उसे ही देखकर चकित है, यह देखकर श्रीपाल मुस्कुराता हुआ वहाँ से उठ खड़ा हुआ और पास ही शान्त खड़े अपने अश्व के समीप जाकर उसकी गर्दन सहलाने लगा । राजकुमारी की सखी-सहेलियाँ अब निश्चिन्त हो चुकी थीं। उनमें से एक ने राजकुमारी के सिर पर आहिस्ते से अपना कोमल हाथ फेरते हुए मधुर स्वरों में कहा - - " राजकुमारीजी ! उठिए, जागिए, अब कोई भय नहीं है । हम सब सकुशल हैं । उठिए, देखिए, सिंह मारा जा चुका है । उठिए राजकुमारी जी !" Jain Education International अपनी प्रिय सखी महाश्वेता का स्वर पहचानकर राजकुमारी ने साहस करके अपनी आँखें फिर से खोलीं । कुछ क्षण इसी प्रकार वह चुपचाप महाश्वेता तथा अपनी अन्य सहेलियों को देखती रही और फिर धीरे-धीरे उठ बैठी। इस समय उसकी पीठ श्रीपाल की ओर थी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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