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११८ पुण्यपुरुष पक्षी मधुर कलरव कर रहे थे। शान्त, शीतल पवन विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों से छेड़-छाड़ कर रहा था। कुल मिलाकर दृश्य और काल बड़े मनोरम थे।
ऐसे मनोरम स्थान पर श्रीपाल भी घड़ी भर के लिए अपनी सारी चिन्ताओं को भूल गया। उसने अपने अश्व को उसकी अपनी ही इच्छा पर छोड़ दिया कि जिधर भी इसका जी चाहे वह चलता चले। चारों ओर प्रकृति का अद्भुत सौन्दर्य बिखरा हुआ था। उस सौन्दर्य में नैसर्गिक संगीत था-ऐसा मादक, मधुर संगीत कि जो किसी भी भावुक व्यक्ति को अपने सम्मोहन से बेभान कर दे। ___इस नैसर्गिक सौन्दर्य का अपने नेत्रों से पान करता हुआ और इस स्वर्गीय संगीत की लहरों में डूबता-उतराता हुआ श्रीपाल बहुत दूर निकल आया। उसे किसी दिशा का भी कोई ध्यान नहीं था, कोई चिन्ता नहीं थी, कोई विचार नहीं था-वह तो केवल डूबा हुआ था-प्रकृति की इस पावन मनोरमता में। ___ "बचाओ.......बचाओ........बचाओ........बचाओ-" की चीख-पुकारें एकाएक श्रीपाल के कानों से टकराई और वह क्षण मात्र में सावधान हो गया। ये चीख-पुकारें नारी-कंठ से निकली हुई थीं। इन पुकारों की दिशा का ध्यान करके उसने अपने अश्व को उसी क्षण उस दिशा में दौड़ा दिया। नंगी तलवार अब श्रीपाल के हाथ में थी
और सरपट दौड़ते हुए पानीदार अश्व पर वह साक्षात् कार्तिकेय के समान दिखाई पड़ रहा था।
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