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पुण्यपुरुष ११७
कर ली गई । अनेक छोटी-बड़ी वस्त्र कुटियों (तम्बू) से
समुद्र का वह तल छा गया ।
अब धवल सेठ को उस द्वीप में अपना माल बेचने और लाभ कमाकर नया माल भरने की सूझी। श्रीपाल स्वयं इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता था। उसने धवल सेठ से कहा
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" श्रेष्ठिवर ! आप व्यापार कार्य में निष्णात हैं । वस्तुओं के भाव-ताव का भी आप को ज्ञान है । अतः मेरे माल को भी आप ही बेच बाच दीजिएगा । तब तक मैं जरा इस द्वीप की शोभा को घूम-फिरकर देख आता हूँ ।"
लालची सेठ ने यह प्रस्ताव तुरन्त स्वीकार कर लिया । अपने मन में उसने सोचा कि यह लड़का भाव-ताव को क्या जाने ? मैं जो कुछ भी इसे दे दूंगा वही सही होगा । प्रकट में उसने कहा
" आप निश्चिन्त होकर भ्रमण कीजिए, आनन्द लीजिए, मगन रहिए। मैं सब कुछ सम्हाल लूंगा ।"
यह व्यवस्था हो जाने के बाद मदनसेना को अपनी सहेलियों के साथ आनन्दपूर्वक समय व्यतीत करने के लिए कहकर श्रीपाल एक सुन्दर द्रुतगामी अश्व पर सवार होकर द्वीप - दर्शन हेतु चल पड़ा।
रत्नद्वीप वास्तव में यथानाम यथागुण ही था । सघन वृक्षावलियों के नीचे बिछी हुई मुलायम रेत सूर्य की किरणों में असंख्य रत्नों की भाँति ही जगमगा रही थी ।
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