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११६ पुण्यपुरुष है। कृपया अब हमारी आगे की यात्रा की तैयारी कर दीजिए।"
राजा महाकाल और उनकी रानी को अपनी प्रिय पुत्री से विलग होने में बहुत दुःख का अनुभव हो रहा था। किन्तु वे कर ही क्या सकते थे? बेटी तो पराया धन ही हुआ करती है । वह जहाँ भी रहे, सुख से रहे, इस भावना के साथ राजा ने श्रीपाल की यात्रा की तैयारी शीघ्र करवा दी। उसने अपने दामाद के लिए एक बहुत बड़ी, अत्यन्त भव्य नौका का निर्माण कराया और उसे रत्नादिक से भर दिया। उसने श्रीपाल को कुछ अतिसुन्दर नाटक भी भेंट में दिए।
इस प्रकार शुभ मुहूर्त में यात्रा पुनः प्रारम्भ हो गई।
समुद्री मार्ग पर नौकाओं का वह काफिला धीरे-धीरे सन्तरण करता हुआ अब रत्नद्वीप की ओर बढ़ रहा था। अपनी विशाल नौका में मदनसेना के साथ अनेक नाटक देखते हुए श्रीपाल का समय और मार्ग आनन्द से कट रहा था।
और एक दिन रत्नद्वीप की हरी-भरी भूमि दिखाई देने लगी। नौकाएँ उसी दिशा में आगे बढ़ रही थीं। शीघ्र ही वे किनारे से जा लगीं। यह द्वीप आकार-प्रकार में कुछ विशाल और अधिक हरा-भरा था। इससे इस द्वीप के निवासियों की समृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता था।
किनारे पर उतरकर सबसे पहले आवास की व्यवस्था
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