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अपनी चारित्रक स्खलनाओं के द्वारा और चारित्रिक निर्मलताओं के द्वारा अपकर्ष और उत्कर्ष करते हैं । दूध-मुंहे श्रीपाल का अपने चाचा के क्रूर अत्याचार व आतंक से त्रस्त होकर करुणा मूर्ति माँ के साथ जंगलों में भटकना और भयंकर कुष्ठ रोग से ग्रसित व्यक्तियों के सम्पर्क में रहकर अपना रक्षण करना, यह प्रबुद्ध पाठक के हृदय को दहलाने वाला है । जब स्वार्थ शैतान की आन्त की तरह बढ़ जाता है तब परिवार विघटित हो जाता है और उन पर सदा सर्वदा के लिए दुःख के काले बादल मंडराने लगते हैं । सामाजिक जीवन तभी स्वर्गीय बनता है जब पारिवारिक जनों में धार्मिक चिन्तन हो, कषायों की न्यूनता हो, व्यापक दृष्टिकोण हो । कर्तव्य पालन के लिए सदा कटिबद्ध हो । प्रेम, सेवा, सहयोग, सहिष्णुता, अनुशासन और कर्तव्यपालन की उदात्त भावनाएँ जब अंगडाइयाँ लेती हैं तब सामाजिक जीवन का कायाकल्प होता है । श्रीपाल अपने जीवन में कठोर श्रम करता है । उसके मन के अणु-अणु में नव-पद के प्रति गहरी निष्ठा है । दुःख के घनघोर बादल नव-पद-स्मरण के दक्षिणात्य पवन के चलते ही एक क्षण में विनष्ट हो जाते हैं ।
मैनासुन्दरी साहस की व सहिष्णुता की एक जाज्वल्यमान प्रतीक है । वह अपनी अपूर्व धर्मनिष्ठा, त्याग और साहस से अपने पति को और अन्य ७०० सज्जनों को भी स्वस्थ बनाती है । मैंने उसी प्राचीन कथा के मूलस्रोत को ध्यान में रखकर उपन्यास विधा में "पुण्य- पुरुष" शीर्षक से इसे लिखा है । उपन्यास की दृष्टि से जहाँ कहीं भी कथा को आधुनिक रूप दिया है किन्तु मूल वही है । आधुनिक युग में उपन्यासों की बाढ़ सी आ रही है । और
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