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अपभ्रंश भाषा में कवि रईघू और पं० नरसेन के 'सिरिपाल चरित्र' उपलब्ध होते हैं ।
श्रीपाल चरित्र की कथा एक धार्मिक कथा है । इस कथा में पात्रों के चरित्र का उत्थान-पतन, कथा में प्रवाह समुत्पन्न करने के लिए यत्र-तत्र कथा में मोड़ दिया गया है जिससे कथा में सरसता, रोचकता और चित्ताकर्षकता बनी रहती है । कथा में प्रासंगिक कथाएँ भी बहुत ही कुशलता के साथ गुम्फित की गई है । राजा प्रजापाल एक निष्ठुर पिता है । वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपनी फूल - सी सुकुमार कन्या को एक कोढ़ी को समर्पित कर देता है । वह एक प्रकार से आधुनिक युग का यथार्थवादी पिता के सदृश है । और इधर माँ का हृदय मक्खन से अधिक मुलायम है । माँ की ममता और पिता के हृदय की कठोरता इन दोनों विरोधी शक्तियों का सुन्दर समन्वय है । मैनासुन्दरी आधुनिक युग की नारी की तरह है जो अपने पिता को भी चुनौती देती है । उसके मिथ्यावाद को वह स्वीकार नहीं करती । उसके स्वर में सत्य है । उसका यह दृढ़ मन्तव्य है कि कुछ क्षणों के लिए भले ही सत्य का सूर्य धुंधला हो जाय, किन्तु लम्बे समय तक वे बादल जो उमड़-घुमड़ कर आते हैं, वे आच्छन्न नहीं रहते । उसका आत्मविश्वास और आत्मबल अपूर्व है ।
प्राचीन युग में बहु विवाह की प्रथा गौरव के रूप में मानी जाती थी । इसलिए श्रीपाल भी अनेक विवाह कर उस परम्परा को निभाता है । धवल श्रेष्ठी जैसे निपट स्वार्थी व्यक्ति समाज के लिए कलंक रूप है । आज भी इस प्रकार के कृतघ्न व्यक्तियों की कहाँ कमी है । कथानक में श्रेष्ठ और कनिष्ठ ये दोनों ही पात्र आते हैं जो
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