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________________ पुण्यपुरुष ११३ राजा श्रीपाल पर मोहित हो गया-अहा ! मह कैसा अनुपम, कितना वीर, कैसा साहसी और कितना सुन्दर महापुरुष है !........काश, मेरी पुत्री को यह अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर ले । यदि ऐसा हो सके तो बेटी के भाग्य ही खुल जायँ। __ यह विचार करता हुआ राजा आगे बढ़ा। श्रीपाल के समीप पहुँचकर उसने बड़े प्रेमपूर्वक कहा___"श्रीमान् ! आपका अदभुत पराक्रम और धैर्य मैंने देख लिया है । हमारे इस छोटे-से नगर में आपका पदार्पण हमारे सौभाग्य का ही सूचक है । मैं अपनी समस्त प्रजा की ओर से आपका अभिनन्दन करता हूँ।" ___"धन्यवाद, राजन् ! आपकी यह विनम्रता प्रशंसनीय है। हम लोग तो यात्री हैं, अभी थोड़े समय में ही आगे बढ़ जायेंगे। मेरे साथी, इन धवल सेठ की थोड़ी असावधानी के कारण आपको तथा आपके सैनिकों को जो कष्ट हुआ उसके लिए हम खेद प्रकट करते हैं।" श्रीपाल का यह उत्तर सुनकर राजा और भी अधिक प्रभावित हुआ। उसने कहा "श्रीमान् ! आपको यहाँ से आगे तो जाना ही है। किन्तु इससे पूर्व मेरी आपसे एक विनम्र प्रार्थना यह है कि भाप कृपा करके मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करने का कष्ट करें। यह हमारा तथा राजकुमारी मदनसेना दोनों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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