________________
१०२
पुण्यपुरुष
चलते-चलते वह एक दिन भरुच नामक नगर में जा पहुँचा । यह नगर समुद्र के किनारे पर था और उस काल का बहुत बड़ा बन्दरगाह था। अनेकों देशों के व्यापारी अपने-अपने जलयानों में अनेक प्रकार की विक्रय सामग्री भरकर वहाँ आते थे, उनका विक्रय लाभ उठाते थे और वहाँ से नई सामग्री अपने-अपने यानों में लादकर अपनेअपने देश को लौट जाते थे । इस प्रकार उस नगर में बड़ी चहल-पहल रहा करती थी। दिन-रात व्यापार होता रहता था।
श्रीपाल उस भीड़ भरे नगर में किसी शान्त विश्रामस्थल की खोज में इधर-उधर घूम रहा था । वैसे तो उस भीड़ भरे नगर में प्रतिदिन ही अनेकों विदेशी आते-जाते रहते थे और कोई किसी की ओर विशेष ध्यान नहीं देता था किन्तु श्रीपाल की मखछवि तथा उसकी देवोपम देह ही कुछ ऐसी थी कि जिस व्यक्ति की भी दृष्टि एक बार उस पर पड़ जाती वह क्षण भर ठिठक जाता और उसे एकटक देखता ही रह जाता।
किन्तु श्रीपाल को किसी की चिन्ता नहीं थी। वह अपने में ही मगन था।
समृद्ध नगर की भव्य, उत्तुंग अट्टालिकाओं और राजपथ पर आते-जाते अनेकों रथों, अश्वारोहियों तथा पैदल नागरिकों को देखते हुए श्रीपाल चला जा रहा था कि अचानक उसे कुछ सैनिकों ने आ घेरा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org