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पुण्यपुरुष
पास कुछ समय है ? क्या आप मुझे सहयोग प्रदान कर सकते हैं ?" ___ "अवश्य । योगीप्रवर ! यह मेरा सौभाग्य होगा। मैं प्रस्तुत हूं।"
इस प्रकार कुछ समय बीत गया। योगी अपनी साधना में रत हुआ और श्रीपाल ने उसे सहयोग दिया।
योगी को उसकी इच्छित सिद्धि प्राप्त हो गई।
अब श्रीपाल को अपनी यात्रा पर आगे बढ़ना था । उसने एक दिन योगी से कहा
"योगीवर ! आपका कार्य सिद्ध हो चुका। अब मुझे आज्ञा दें।" ___ "आज्ञा देने वाला तो केवल प्रभ है भाई ! हाँ, मेरा काम पूर्ण हुआ, तुमने मुझे निस्वार्थ सहयोग दिया है, और उसके लिए मैं तुम्हारा कृतज्ञ भी हूँ। अब जब तुम जाना चाहते हो तो मेरी ओर से दो विद्याएँ तुम ग्रहण करते जाओ । भविष्य में ये तुम्हारे काम आ सकती हैं।"
"उपकृत हूँ, योगीवर ! वे कौनसी विद्याएँ हैं ?"
"एक विद्या है 'जल-तरणी' तथा दूसरी है 'शस्त्र-धात निवारिणी' । जल तुम्हें डुबा नहीं सकेगा, शस्त्र का कोई भी आघात तुम्हें स्पर्श नहीं करेगा।"
यह कहकर योगी ने वे दोनों विद्याएँ श्रीपाल को दे दी। विधिपूर्वक उन्हें ग्रहण कर, और योगी को अभिवादन कर वह आगे चल पड़ा।
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