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१०० पुण्यपुरुष प्रजा का पोषण किस न्यायपूर्ण और प्रेमभरी रीति से करेगा, यह उसने मन ही मन निश्चित कर लिया। ___ इसी प्रकार भटकते-भटकते वह एक दिन एक सघन वन में जा पहुँचा। उस वन में एक उत्तुंग पर्वत था। कौतूहलवश श्रीपाल उस पर्वत की चोटी पर जा चढ़ा। वहाँ उसने एक बड़ी-सी शिला पर एक योगी को अपनी दोनों बाहें आकाश में उठाये हुए तपस्या करते हुए पाया। योगी की दृष्टि भी श्रीपाल पर पड़ी। उसने अपने दोनों हाथ नीचे कर लिए, क्षण-दो क्षण श्रीपाल को अपनी तपबल से चमकती आँखों से देखा और फिर कहा___"हे महापुरुष ! आप कौन हैं ? और इस बीहड़ वन में इस प्रकार अकेले क्यों भटक रहे हैं ?"
श्रीपाल ने योगी का अभिवादन करते हुए उत्तर दिया
"महामना ! मेरा परिचय जानकर आप क्या करेंगे? आप तो संसार-त्यागी योगी हैं। हाँ, यदि मेरे योग्य कोई सेवा हो तो अवश्य आज्ञा कीजिए।" __योगी पुनः क्षण भर मौन रहा। फिर कुछ सोचकर
बोला
____ "आप ठीक कहते हैं। मैंने संसार त्याग दिया है। किन्तु मैं जो सिद्धि प्राप्त करना चाहता हूँ उसके लिए मुझे कुछ समय के लिए एक सहायक की आवश्यकता है। उसके बिना सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। क्या आपके
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