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ग्राम, नगर, वन और पर्वतों को लांघता हुआ श्रीपाल जब जिधर मन किया उधर ही आगे बढ़ता रहा । वह एकाकी था । सुन्दर और बलिष्ठ देह थी । ढाल कंधे पर और तलवार कमर से लटक रही थी । उस सशक्त, स्वरूपवान एकाकी पुरुष को यदि कोई जंगल में इस प्रकार भटकता हुआ देखता तो वह यही सोच सकता था कि साक्षात वनदेवता ही अपने विस्तृत साम्राज्य का निरीक्षण करने निकल पड़े हैं ।
और यदि कोई गांधर्वी अथवा किन्नरी उसे देख पाती तो वह उस पर मोहित हुए बिना न रहती ।
ग्राम-नगरों में श्रीपाल ने अनेकों लोगों का परिचय प्राप्त किया । उनके सुख-दुःख को समझा । उनकी दिनचर्या और जीवन के तौर-तरीकों को जाना । इसी प्रकार वन-पर्वतों में भी उसने सृष्टि के अनेक सुन्दर रहस्यों को देखा और समझा । इस प्रकार वह धीरे-धीरे एक परिपक्व बुद्धि वाला, अनुभवी वीरपुरुष हो गया । अपनी चम्पा नगरी को पुनः विजित कर लेने पर वह अपनी प्यारी
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