________________
६८ पुण्यपुरुष
किन्तु शशांक कहाँ मानने वाला था ? वह बोला"और कोई साथ जाय या न जाय, यह शशांक सोलंकी श्रीपाल महाराज की शरण छोड़कर कहीं नहीं जायगा, कहीं नहीं रहेगा । महाराज भली भाँति सुन लें......... 1"
"सुन लिया, सुन लिया, भाई ! भली-भाँति सुन लिया । किन्तु तू भी अपनी जिद को छोड़कर मेरी बात को भी ठीक से समझ ले | देख, यदि हम दोनों चल देगे तो फिर माताजी और मैना की देख-रेख कौन करेगा ? कभी कोई विपत्ति आ ही पड़ी तो इनकी रक्षा कौन करेगा ?" यह सुनकर मैनासुन्दरी ने कहा
" नाथ ! आपकी आज्ञा तो शिरोधार्य होगी ही । किन्तु हमें यहाँ किसी प्रकार का भय नहीं है । इसके विपरीत विदेश में यदि आप लोग एक की बजाय दो रहेंगे तो अधिक ठीक रहेगा........ ।”
"नहीं मैना ! मैंने सब कुछ सोच लिया है। मुझे अकेले ही जाना होगा। तुम मेरे काका अजितसेन को नहीं जानतीं । वे कुटिल और स्वार्थी हैं । वे अवश्य ही अवसर की ताक में रहेंगे । अतः शशांक का तुम लोगों की रक्षा के लिए यहीं रहना नितान्त आवश्यक है ।"
।
"लेकिन..
ין
" लेकिन - वेकिन कुछ नहीं शशांक ! यह मेरा निर्णय है और मेरी आज्ञा है । "
आज्ञा तो आज्ञा ही है । इसके बाद कोई कुछ नहीं
बोल सका ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org