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पुण्यपुरुष १७ बस, तू यही चाहता है न ? अब तो अपना यह मुँह धो ले और भोजन करने बैठ।"
श्रीपाल ने प्रेम से शशांक को उठाया। उसने हाथ-मह धोए और फिर सब लोग प्रेमपूर्वक भोजन करने बैठ गये।
मैनासुन्दरी स्वयं अपने हाथों से सबको भोजन परोस रही थी। किन्तु मन उसका कहीं उलझ गया था। उसे अपने पतिदेव से होने वाले आसन्न वियोग की आशंका कष्ट देने लगी थी। ___ जब भोजन हो चुका तब शान्तिपूर्वक मैनासुन्दरी ने श्रीपाल से कहा___ "पतिदेव ! क्या आप कल ही विदेश जाने का निश्चय कर चुके हैं ?"
"हाँ, मैना ! यह तो निश्चित ही है।" __ "तब मेरी एक प्रार्थना स्वीकार कीजिए। मुझे भी अपने साथ ही ले चलिए।"
सुनकर श्रीपाल हँस पड़ा - "अरे मैना ! तू मेरे साथसाथ कहाँ-कहाँ भटकेगी ? न जाने कितने जंगल, पहाड़, नदी-नाले और समुद्र भी मैं पार करूंगा-नहीं, नहीं; यह तेरे बस की बात नहीं है। तू तो थोड़े दिन माताजी और शशांक के साथ यहीं रहना। मैं बहुत जल्दी लौट आऊँगा और फिर हम लोग सब विजयघोष करते हुए चम्पा चलेंगे।"
मैनासुन्दरी का मुँह उतर गया। किन्तु पति की आज्ञा के विरुद्ध वह कुछ बोल नहीं सकी।
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