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________________ ६६ पुण्यपुरुष " और करोगे भी क्या तुम ? खुद जमकर सुसराल में बैठ गए हो, और अब अपने सारे खानदान को भी यहीं बुला लोगे | धन्य है तुम्हारे पुरुषार्थ को !" यह चुनौती बड़ी जबरदस्त थी । किसी भी कर्मशील पुरुष को उसके पुरुषार्थ को दी जानी वाली चुनौती बड़े गहरे मर्म तक छू जाती है । श्रीपाल भी समझ गया कि शशांक को उसका अब इस प्रकार सुसराल में पड़े रहना प्रिय नहीं लग रहा है । किन्तु अचानक ही वह इतना गम्भीर कैसे हो गया, यह जानने के लिए उसने पूछा "क्यों रे शशांक ! तेरी बात को मैं समझ गया हूँ । और अब एक दिन भो यहाँ नहीं रहूँगा । किन्तु तू यह तो बता कि तुझे किसी ने छेड़ा है क्या ?" "मुझे छेड़ने का साहस किस गधे में है ? किसकी मौत आई है जो मुझे छेड़े ? मुझे छेड़ा-बेड़ा किसी ने नहीं है । " " तब तू एकदम इस प्रकार उखड़ कैसे गया है ?" "नगर में लोगों की चर्चा सुनता हुआ आ रहा हूँ । लोग तुम्हें देवतास्वरूप तो मानते हैं, किन्तु फिर भी घरजमाई तो घरजमाई ही रहेगा न ? उसकी इज्जत लोग कब तक करेंगे ?" "ठीक है, ठीक है । मैं कल प्रातःकाल ही यहाँ से चल पहूँगा । पहले कुछ देश-विदेश में भ्रमण करूँगा, संसार का कुछ अनुभव लूंगा । धन और सैनिक इकट्ठे करूँगा और फिर अपनी चम्पानगरी को हस्तगत करूंगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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