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पुण्यपुरुष
समय पर स्वतः ही समझ में आती हैं। उससे पूर्व कितना भी समझाया जाय किन्तु वे समझ में नहीं आ पातीं। ___"इसके अतिरिक्त समय-चक्र भी अपनी गति से आगे बढ़ता ही रहता है-नीचर्गच्छति उपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण-यह जीवन-चक्र ऐसे ही चलता है। कर्मों के प्रताप से राजा को भी रंक की शरण में जाना पड़ जाता है। आशा है अब आप लोग समझ गये होंगे तथा मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप लोग शीघ्र ही चम्पानगरी के महाराजाधिराज श्रीपाल की जय का घोष सुनेंगे। वह विजयघोष इतना तीव्र होगा कि आकाश भी उससे गूंज उठेगा और इस उज्जयिनी नगरी की दीवारें भी उस जयघोष को प्रतिध्वनित करेंगी।"
इतना ही कहकर और उन नागरिकों को विस्मयविमुग्ध छोड़कर शशांक वहाँ से चल पड़ा।
यद्यपि शशांक श्रीपाल से आयु में कुछ बड़ा ही था किन्तु वह अब तक श्रीपाल का बहुत मुहलगा छोटा भाईसा ही हो गया था। मैनासुन्दरी भी उसे अपने प्यारे देवर की भांति दुलार करने लगी थी। ___ उज्जयिनी के बाजार से जब शशांक लौटा तब संध्या काल हो चुका था। भोजन की तैयारी थी। शशांक सीधा पाकशाला में पहुँचा, जहाँ मैनासुन्दरी की देखरेख में
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