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________________ पुण्यपुष ११ होते थे और जन-जन का आदर व सम्मान प्राप्त करते थे । नगरी में जिधर भी वे घूमते-फिरते कभी निकल जाते, लोगों की टकटकी उनकी ओर लग जाती और उनके मुख से सहज ही प्रशंसा के शब्द निकल पड़ते-'कितना सुन्दर, कितना सुशील, कैसा गुणी व्यक्ति है यह श्रीपाल ! अवश्य ही यह कोई महापुरुष है। धन्य है राजा प्रजापाल जिन्हें ऐसा दामाद प्राप्त हुआ है और धन्य है राजकुमारी मैनासुन्दरी जिसने ऐसे देवात्मा को पतिरूप में प्राप्त किया है।' ____कोई दूसरा व्यक्ति कहता-"कहते तो तुम ठीक हो। किन्तु हमारी राजकमारी मैनासुन्दरी भी किसी से कम तो नहीं है । न रूप में, न गुण में, न चारित्र्य में । अपने धर्म के प्रति उसकी कैसी अटूट, दृढ़ आस्था है कि उसने एक क्षण के लिए भी अपने पिता की आज्ञा का कोई दुःख न माना और हँसते-हँसते वीतराग भगवन्त की शरण लेकर कोढ़ी पति को स्वीकार कर लिया।" वही तो, वही तो, भाई ! इसी अखण्ड धर्मश्रद्धा का ही तो यह प्रभाव है कि आज उनकी जुगल जोड़ी कामदेव और रति के समान सुशोभित होती है।" “किन्तु भाई ?" एक व्यक्ति ने कुछ बुजर्गी प्रकट करते हुए कहा, “एक बात अपनी समझ में नहीं आई।" "तुम्हारी समझ में बातें आती तो कम ही हैं। फिर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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