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१.
पुण्यपुरुष
लिए अज्ञात ही हो गये थे, किन्तु महारानीजी का पीछा वे किसी प्रकार नहीं छोड़ रहे थे।
"किन्तु मेरा नाम भी शशांक है-भूख तो बड़ी तेज लग रही है-किन्तु बात पूरी कर ही दूं। बस, बात इतनी सी है कि वे रानी के पीछे आते रहे और यह संपेरा उनके फन कुचलता रहा और उनके शीष की मणियां उतारता रहा। यह सब रत्न-राशि उन्हीं दुष्टों से मैंने साम-दाम-दण्ड-भेद से प्राप्त की है और बदले में उन्हें सातवें नरक का प्रवेशपत्र दिया है।
"किन्तु प्रभु ! अब इस बूढे का भी कुछ विचार कीजिए । बड़ी आशा लगाकर श्रीचरणों में उपस्थित हुआ हूँ। भूख बड़ी जोर से लग रही है........।"
एक ठहाके के साथ श्रीपाल उठा और शशांक को हाथ पकड़कर घसीटता हुआ पाकशाला की ओर ले चला।
हृदय में समाए नहीं इतना सुख अनुभव करते हुए रानी कमलप्रभा तथा मैनासुन्दरी उनके पीछे-पीछे चल पड़ी।
मैनासुन्दरी की चाल में कुछ तेजी थी- उसे अपने स्वामी के प्रिय सखा के समान शशांक को अपने हाथ से गरम-गरम खाना जो खिलाना था।
x श्रीपाल स्वस्थ होकर किसी देवपुरुष की भाँति प्रतीत
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