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पुण्यपुरुष ८७ एक वह सँपेरा कक्ष के आँगन पर फैलाता चला जा रहा था........।
वे सब सर्पाकार लड़ियां सुवर्ण, रजत और रत्नों से जड़ी हुई थीं। उनमें हीरे थे, माणिक्य थे, पुखराज थे, नीलम थे-सभी प्रकार के बहुमूल्य रत्नों से ही वे सर्प बने हुए थे।
यह देखकर तीनों को आश्चर्य होना स्वाभाविक ही था। श्रीपाल ने कहा
"भाई सँपेरे ! यह क्या तमाशा है ? तुम सँपेरे हो या कोई जादूगर, या कोई व्यापारी हो? यहाँ तो कोई सर्प दिखाई नहीं देता। इन रत्नों के तेज से हमारी आँखें ही चौंधियाने लगीं । तुम्हारे सर्प कहाँ है ?" ___ "महाराज धैर्य धारण करें। सब कुछ बताता हूँ। ये जितने सर्प आपको दिखाई दे रहे हैं, इन सबके फन मैंने कुचल दिये हैं। ये सभी सर्प अत्यन्त विकट और विषैले थे। एक-एक करके इन्हें अपने वश में करने में मुझे बड़ी चतुराई और साहस से काम लेना पड़ा है । अन्यथा इनमें से कोई एक भी सर्प यदि जीवित बच जाता तो वह महारानीजी तथा आपको डसकर ही छोड़ता।" ___ सँपेरे की बात सुनकर मैनासुन्दरी तो कुछ भी समझ नहीं सकी, किन्तु रानी कमलप्रभा तथा श्रीपाल को वास्तविकता का कुछ-कुछ आभास होना आरम्भ हुआ। वे बड़े गौर से बूढ़े सँपेरे के चेहरे की ओर देखने लगे।
उन्हें इस प्रकार अपने चेहरे की ओर दृष्टि गड़ाये हुए
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