________________
पुण्यपुरुष ८५ भयानक-सभी प्रकार के सर्प हैं। उन सो को वह बड़ी कुशलता से नचाता है। मैंने देखा तो नहीं, स्वामी ! किन्तु वह ऐसा ही कह रहा है। आपको वह अपने इन अद्भुत सौ का नृत्य दिखाना चाहता है।"
वैसे तो श्रीपाल को नाग-नृत्य देखने में अभी कोई रुचि नहीं थी, वह अब जल्दी से जल्दी शशांक का पता लगाना चाहता था किन्तु यह सोचकर कि सँपेरा कुछ आशा लेकर उसके पास आया होगा तथा उसके सर्पो के खेल से माता का मन भी कुछ बहल जायगा, उसने दासी को आज्ञा दी
"अच्छा जा, उसे यहाँ भेज दे।"
"लेकिन ठहर, मालती," रानी ने उसे रोककर कहा - ''जा, पहले बह को यहाँ भेज दे। पीछे उस सँपेरे को यहाँ भेजना।"
कुछ ही देर में मैनासुन्दरी वहाँ आ पहुँची और उसके आने के बाद दो-चार बड़े-बड़े, विचित्र से, बाँस के बने पिटारे लादे हुए एक बूढ़ा सँपेरा वहाँ आया।।
धीरे-धीरे, जैसे बड़ी कठिनाई से उन पिटारों का बोझ उससे सम्हल न पा रहा हो, उसने उन्हें कक्ष के मखमली
आँगन पर रखा और फिर आधा झुका हुआ-सा वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उसके सिर-मूछ-दाढ़ी के सब बाल श्वेत थे। चेहरे और हाथ पैरों की चमड़ी में झुर्रियां पड़ी हुई थीं। वह बोला
"महाराज । महारानीजी ! वरसों की तपस्या करके,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org