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६० | सीना और सुगन्ध करते हुए यदि मेरा जीवन नष्ट हो जाए तो मेरा जीना सार्थक होगा। नियम को तोड़कर हजारों वर्ष का जीवन भी वृथा है। जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं मैं अपने धारण किये गये नियम को नहीं त्यागूगा।"
अकिंचन नित्य खाली लौटता रहा, पर उसने हिम्मत नहीं हारी और न विचलित हुआ। एक दिन ईंधन की खोज में एक पहाड़ी जंगल में जा पहुँचा। वहाँ उसे सूखी लकड़ियों के बहुत-से वृक्ष मिल गये । कई दिनों के लिए एक ही स्थान पर सूखा ईंधन मिल गया । अकिंचन ने उत्साहपूर्वक एक गट्ठर तैयार किया और खुशी-खुशी शहर की ओर चल दिया। शहर आते-आते अँधेरा हो गया । अकिंचन ने सोचा, 'अब तो बहुत देर हो गई। कल दिन में ही गट्ठर बेचूंगा।' यह सोच अकिंचन खाना बनाने बैठ गया।
कम्पिलपुर नगर का धनदत्त नाम का एक सेठ अपने उद्यान की ओर जा रहा था। रास्ते में अकिंचन का घर पड़ा। जलतो हुई लकड़ियों को सुगन्ध से आकृष्ट हो धनदत्त अकिंचन के घर में घुस गया और लकड़ियों के हर को देखकर अवाक रह गया । आँखे फाड़कर बहुत देर तक देखता रहा। फिर एक रुपया अकिंचन की ओर फेंककर बोला
"इन लकड़ियों में से एक लकड़ी मुझे दे।"
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