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नियमनिष्ठा का चमत्कार | ६१
अकिंचन ने सोचा, 'और दिन तो मैं पूरा गट्ठर एक रुपये का बेचता था। आज एक लकड़ी का ही एक रुपया मिल रहा है । अवश्य ही ये लकड़िया रहस्यभरी हैं ।' यह सोच अकिंचन ने कहा
"मुझे लकड़ियाँ बेचनी नहीं हैं ।"
"क्यों ?" धनदत्त ने पूछा - "क्या लकड़ियाँ बेचना छोड़ दिया है या मन में लोभ आ गया है ?"
अकिंचन ने कहा
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" मेरी चीज है, बेचू या न बेचू मेरी इच्छा । हाँ, आप इतनी कृपा कर सकें तो करें कि इस लकड़ी के गुण मुझे बता दें। आप एक लकड़ी का एक रुपया दे रहे हैं, इससे इतना तो मैं जान ही गया कि यह लकड़ी साधारण लकड़ी नहीं, चमत्कारी और बहुमूल्य लकड़ी है ।"
धनदत्त ने बताया
"यह तो बावना चन्दन है । हरिचन्दन अथवा गोशीर्ष चन्दन भी इसे कहते हैं । यह सर्वथा अलभ्य है - लाखों रुपये खर्च करने पर भी यह नहीं मिलता । "
अकिंचन ने हँसकर कहा-
"सेठजी ! लाखों की चीज एक रुपये में ही खरीद रहे थे ? फिर भी, आपने मुझे इसके गुण बताये हैं, इसलिए मैं एक लकड़ी आपको वैसे ही देता हूँ ।" यह कहकर अकिंचन ने एक लकड़ी धनदत्त को दे दी ।
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