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६२ } सोना और सुगन्ध __सवेरा होते ही अकिंचन लकड़ियों का गट्ठर लेकर बाजार गया। उसके साथियों ने उसका मजाक उड़ाया
हाँ, भाई अब तो जरूर पेट भर लोगे। कितने दिन में ये लकड़ियाँ मिली हैं। ऐसे कितने दिन गुजर करोगे ?"
साथियों को कुछ भी उत्तर दिये बिना अकिंचन एक सेठ के यहाँ पहुँचा और सवा लाख में लकड़ियाँ बेच दीं।
अकिंचन अब कुछ-से-कुछ हो गया। उसको झोंपड़ी भव्य प्रासाद में बदल गई। धर्मपत्नी भी घर आ गई और धर्मनियमों का पालन करते हुए सुख से जीवन बिताने लगा।
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