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१४ माँ की पुकार
राजकुमार अरणिक धर्मगुरु ज्ञानी मुनि का उपदेश सुन रहे थे। मुनि के श्रीमुख से निकला एक-एक वाक्य और प्रत्येक शब्द उनके मन की गहराई में उतरता जा रहा था। कुछ लोग केवल सुन रहे थे और मुनि की वाणी कानों के आर-पार हो रही थी और कुछ सुनने से अधिक सोच रहे थे। उपदेश की समाप्ति के बाद राजपुत्र अरणिक ने विचार किया___ "पूर्व पुण्यों के कारण मैं राजपुत्र बना । सुन्दर, स्वस्थ और सुकुमार शरीर पाया। मेरे लिए सुखों का ओर-छोर नहीं । दास-दासो हाथ बांधे खड़े रहते हैं। मैं आज तक यह तो जान ही नहीं पाया कि सर्दी में कैसे ठिठुरते हैं, गरमी की वेदना कैसी होती है। लेकिन इन सवसे मेरी आत्मा को क्या सुख मिलता है ? लोग इस जीवन को आनन्दमय कहते हैं, पर मुझे तो यह आनन्दशून्य ही लगता है। राजपद से भी ऊँचा पद परमपद है। थोड़े-से पुण्यों से राजपद मिला और चारित्र की कठोर साधना से
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