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________________ BE. ८८ | सोना और सुगन्ध अकिंचन ने कुल्हाड़ी जमीन पर टेकी और कहा "मुनिवर ! करना तो चाहता हूँ, पर कर नहीं पाता।" "क्यों ?" मुनि ने पूछा। अकिंचन ने मजबूरी जाहिर की-- "गुरुदेव ! पेट की आग बुझाने में ही पूरा समय निकल जाता है । न तो साधुओं के सत्संग के लिए समय मिलता है और न धर्माराधन के लिए। मेरा जीवन ही ऐसा है।" मुनि ने समझाया "वत्स ! धर्म के लिए किसी उपाश्रय जाने की अथवा अलग से समय निकालने की कोई आवश्यकता नहीं। तुम्हारा जैसा भी जीवन-क्रम है, उसी जीवन-क्रम को चलाते हुए भी तुम धर्म-कर्म कर सकते हो ?" प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अकिंचन ने पूछा"कैसे कर सकता हूँ, प्रभो !" मुनि ने फिर समझाया "अपनी जीविका के अनुकूल कोई व्रत-नियम ले लो। ऐसा व्रत-नियम कि जीविका भी चलती रहे और व्रतनियम भी निभता रहे।" । मुनि के सामने ही अकिंचन ने नियम लिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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