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दमसार-शम-सार | ८५ धीरज किनारा कर गया। क्रोधाविष्ट मुनि ने सोचा'इस नगरी के लोग बड़े दुष्ट हैं। अकारण ही इस एक नागरिक ने मुझे कष्ट दिया। इनकी दुष्टता का फल इन्हें मिलना ही चाहिए।' यह सोच मुनि 'उत्थान श्रुत' का उद्वेग पैदा करने वाले अंग विशेष का पाठ करने लगे। मन्त्र प्रभाव से नगर के लोगों पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। उन्हें धरती घूमती नजर आने लगी। पुत्र माँ को पुकार रहा था और माँ बेटे को पुकार रही थी। दाह से सबके शरीर जलने लगे। आदमी के ऊपर आदमी गिरने लगा। लोगों की चीख-पुकार से मुनि का क्रोध दयाकरुणा में बदल गया-अग्नि जल हो गई और अब उत्थान श्रुत के उद्वेग निवारण करने वाले प्रशमनकारी अंश विशेष का पाठ करने लगे । नगर का कोलाहल शान्त हो गया । सब लोग पूर्ववत् चैन की साँस लेने लगे। मुनि को वीरप्रभू की वाणी का स्मरण हो आया-'कषायानल का प्रशमन'। उन्हें अपने क्रोध पर ग्लानि हुई। याद आया- 'क्षमा और उपशम ही तो श्रमणधर्म की विशेषताएँ हैं।' ___मुनि दमसार को अपने क्रोध-कषायानल का इतना पश्चात्ताप हुआ कि आहार लिए बिना ही वे वापस आ गए और मन की वेदना वीरप्रभु के समक्ष प्रकट की। वीरप्रभु ने फिर उद्बोधन दिया
"दमसार ! जो साधु क्रोध-कषाय को प्रशमित नहीं कर
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