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८४ | सोना और सुगन्ध धरती का रेत इतना तप्त था, चाहो तो चने भून लो। मास क्षमण के पारणे का दिन था । मुनि दमसार के दो प्रहर तो स्वाध्याय व ध्यान में ही बीत गये । अव वे पारणा के लिए भिक्षार्थ चम्पानगरी की ओर चले । थोड़ी ही दूर चले तो चम्पानगरी का एक नागरिक मिल गया। उसने मुनि को देखा तो मन में बड़ा खिन्न हुआ—'मैं जिस कार्य से जा रहा था, अब वह कार्य नहीं होगा। इस नंगे सिर के मुण्डित साधु ने तो मेरा शकुन ही बिगाड़ दिया ।
मुनि ने सरल भाव से उस नागरिक से पूछा
"भद्र ! चम्पानगरी का कोई सीधा और जल्दी पहुंचाने वाला रास्ता हो तो बताओ।"
नागरिक तो मुनि से कुढ़ ही रहा था। उसने सोचा कि इस अपशकुन कर्ता को मजा चखाऊँ । अतः झांसा देने के विचार से एक ऊबड़-खाबड़ और रेतीले मार्ग की ओर संकेत करते हुए बोला
"आप इस रास्ते से जाइए। बड़ी जल्दी आप नगर में पहुँच जायेंगे।"
चलते-चलते मुनि परेशान हो गये। रेत में उनके पैर जल उठे। प्यास से कण्ठ सूख गया, पर अभी तक नगर नहीं आया। दूर से उन्हें नगर के मकानों का पिछवाड़ा ही दीखा। मुनि को वेदना असह्य हो गई और उनका
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