________________
दमसार---शम-सार | ८३
विचार किया-'इतनी उग्र साधना के वावजूद भी मुझे केवलज्ञान प्राप्त क्यों नहीं हो रहा ? क्या मेरे तप में कहीं कुछ शेष है ? क्या मैं भव्य नहीं हूँ ?' ___अपने मन को शंका एक दिन उन्होंने भगवान महावीर के सामने प्रकट की। भगवान महावीर चम्पानगरी के बाहर राजोद्यान में अपनी धर्मसभा को सम्बोधित कर रहे थे। मुनि दमसार की शंका सुनी तो वोले
'दमसार ! मन में शंका को स्थान मत दो। निश्चय ही तुम भव्य हो। तुम्हें केवलज्ञान की प्राप्ति भी इसी भव में होगी। पर अभी तुम्हारे अन्दर कषाय भाव का प्रावल्य है। अग्नि से बीज और अंकुर दोनों ही झुलस जाते हैं। जब तक तुम्हारे अन्तर में कषायाग्नि रहेगी,केवलज्ञान का कल्पांकुर कैसे उगेगा? चिन्तन और विवेक की जलधार से इस कषायानल को बुझाओ । याद रखो, क्षमा और उपशम ही श्रमणधर्म का सार है।"
मुनि दमसार ने प्रभु की वाणी सुनी तो कृतकृत्य होकर निवेदन किया___ “प्रभो ! अब मैं कषायानल को प्रशमित करने का ही प्रयत्न करूंगा।" और उन्होंने प्रभु की वाणी मन में धारण कर ली।
x जेठ का महीना। मध्याह्न का मार्तण्ड अग्नि बरसा रहा था। हवा का स्पर्श त्वचा को जलाये डाल रहा था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org