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८२ | सोना और सुगन्ध
"पिताजी ! यह छोटा-सा राज्य त्यागकर आपका पुत्र यदि मुनि बनकर विश्व का स्वामित्व प्राप्त करे तो क्या यह आपके लिए कम गौरव की बात होगी? आपका उत्तराधिकार प्राप्त करके अपने वंश का नाम मैं शायद इतना उज्ज्वल न कर पाऊँगा, जितना कि संयम ग्रहण करके कर पाऊँगा।" __ "पिताजी ! आप मुझे वीरप्रभु की शरण में जाने की अनुमति दीजिए।"
राजा की किसी युक्ति ने काम नहीं दिया और अन्ततः महाराज सिंहरथ ने राजकुमार दमसार को प्रवजित होने की अनुमति दे दी।
मुनि दमसार साधना में जुट गए। शास्त्रों का अध्ययन, जप-तप, ध्यान आदि में वे बहुत आगे बढ़ गए । संयम और चारित्र की उत्कट साधना से वे बहुत ऊँचे उठ गए। तपस्या ही उनका लक्ष्य था और एक दिन वीरप्रभु के समक्ष मुनि दमसार ने यावज्जीवन मासक्षमण तप करते रहने का संकल्प ले लिया। इस कठोर अभिग्रह का पालन करते-करते उनका शरीर सूखकर काँगा हो गया। हड्डियों के ढाँचे पर त्वचा मात्र का आवरण था-रक्त-मांस की बूंद भी मानो शेष नहीं थी।
अपनी कठोर तपश्चर्या को लक्ष्यकर मुनि दमसार ने
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