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क्षमा और क्रोध का द्वन्द्व | ७६ कुमार निकाय के देव ने अवधिज्ञान से कुम्भकारकटक नगर को देखा । पाँच सौ साधुओं की हड्डियों के ढेर को और बहती हई खून की नदियों को देखा तो उनका खून खौल उठा । विकराल रूप बनाकर वे आकाश में खड़े हो पापी पालक को ललकारने लगे-दुष्ट पालक ! अधम राजा दण्डक ! तुमने जो घोरातिघोर अन्याय किया है, भयंकर पाप किया है, उसका फल भुगतने को तैयार हो जाओ। और क्रोधांध अग्निकुमार देव ने धधकते अंगारों की वर्षा शुद्ध की। देखते-देखते समूचा शहर होली की तरह जल उठा । एक पापी के पाप ने लाखों निरपराध जीवों को मौत के घाट उतार दिया।
कहते हैं तभी से वह भू-भाग दण्डक वन या दण्डकारण्य कहलाने लगा। __ पाँच सौ श्रमणों ने क्षमा एवं सहिष्णुता धारण कर मोक्ष प्राप्त किया तो मुनि स्कन्द ने क्रोध के कारण विराधक पद पाया एवं पालक ने द्वेष तथा क्रोध के वश हो पूरे नगर को अग्निज्वालाओं में भस्म करवा दिया।
-उपदेशमाला
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