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७८ | सोना और सुगन्ध ... आचार्य स्कन्द के खून से लथपथ उनका रजोहरण एक ओर पड़ा था । एक गीध ने उसे माँस का टुकड़ा समझ कर अपनी चोंच में उठा लिया और लेकर उड़ गया। अक्समात वह रजोहरण रानी पुरन्दरयशा के महलों में गिरा । उसने अपने भाई का खून से सना रजोहरण देखा तो स्तम्भित रह गई। क्षण-भर तो वह कुछ भी नहीं समझ पाई। फिर उसे चेतना लौटी, भाई के रजोहरण से आधार पर उसने मुनियों के कुशल-क्षेम का पता लगाया तो अपने भाई के वध तथा पाँच सौ मुनियों के निर्दयतापूर्वक कोल्हू में पेले जाने का हृदय द्रावक समाचार मिला। इस दुष्कृत्य को नगर भर में हलचल थी। रानी पुरन्दरयशा अपने भाई की याद में फूट-फूट कर रोने लगी। उसके पति के अज्ञान से उसके वंश में कितना बड़ा पाप हुआ था। रानी पुरन्दरयशा चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगो-"अरे दुष्टो ! सात पीढ़ी तक भी इस मुनिहत्या के पाप से तुम हत्यारों का छुटकारा नहीं होगा।" क्रोध, दुःख और परिताप के आवेग में रानी ने निश्चय किया कि अव मैं ऐसे पापपूर्ण राज्य और इस संसार में नहीं रहूँगी। उसके मन में वैराग्य हुआ और वह सपरिवार मुनिसुव्रत स्वामी की शरण में गई और आत्मसाधना में लीन हो गई। : आचार्य स्कन्द ने क्रोध में भान भूलकर जो नियाणानिदान दुस्संकल्प किया, उसके फलस्वरूप वे अपने दूसरे जन्म में अग्निकुमारनिकाय के देव बने । उन्होंने-अग्नि
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