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________________ क्षमा और क्रोध का द्वन्द्व | ७७ पापात्मा ! इतनी जघन्य हिंसा से भी तेरा पेट नहीं भरा । ले पहले मुझे ही अपनी हिंसा का ग्रास बना, बाद में इस दुधमुँहे साधु को पेलना ।" दुष्ट ने स्कन्दमुनि की बात पर कोई ध्यान दिये विना ही उस अन्तिम और सुकुमार वैरागी को कोल्हू में पेल दिया । स्कन्दाचार्य के क्रोध का ठिकाना न रहा । वे आपे से बाहर हो गये । क्रोध से उनका चेहरा लाल पड़ गया । क्रोधाग्नि ने उनके संयम गुणों का स्वाहा कर दिया। क्रोधावेश में पालक से बोले ――――― , "रे दुष्ट पालक, सुन ! मैं तुझ दुरात्मा को अन्धे और अधर्मी राजा दण्डक को और अपनी आँखों से सब कुछ देखने वाली निर्दय प्रजा को इस दुष्टता का मजा चखाऊँगा । मेरे तप-संयम का फल मुझे यही मिले कि मैं तेरा, तेरे राजा और तेरे नगर का विध्वंस करने वाला बनूँ ।" 500 पालक पर कुछ भी असर नहीं हुआ। मुनि स्कन्दकुमार को चेतावनी पर देत्य की तरह क्रूरतापूर्वक हँसता हुआ आगे बढ़ा, और अपने हाथ से ही मुनि को पकड़कर कोल्हू में यों डाल दिया जैसे गन्ने को डाल दिया जाता है । आज उसकी वर्षों की दुरिच्छा पूरी हो गई । यह जघन्य घोरतम पाप करके वह पाँच सौ साधुओं की हड्डियों के ढेर को देखकर, उनके गर्म रक्त की धारा का स्पर्श करके राक्षस की भाँति उन्मत्त होकर नाच उठा । X X X Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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