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७६ | सोना और सुगन्ध
एक-एक करके साधुओं को कोल्हू में पेलना शुरू कर दिया । देखते-देखते राजोद्यान की हरित दूर्वा से आच्छादित भूमि रक्तरंजित और वीभत्सता से युक्त हो गई । आचार्य स्कन्द प्रत्येक साधु को स्व-पर- आत्मा और देह के भेदज्ञान का उपदेश दे रहे थे, प्रत्येक साधु से आलोचना करवा रहे थे और यथोचित प्रायश्चित्त करवाकर प्रत्येक के मन में समाधिभाव उत्पन्न कर रहे थे । परिणाम यह हुआ कि सिर पर कफन बाँधे प्रत्येक साधु ने कोल्हू में पिलने से पहले शरीर - मोह - ममत्व का पूर्णतः त्याग कर दिया । हरेक के मन में यही विचार था कि इसमें जल्लादों, उन्हें आदेश देने वाले पालक का कोई दोष नहीं है। यह सब दोष हमारे पूर्व-कृत कर्मों का है, कर्मों का फल भोगे बिना उनका क्षय कैसे होगा ? सभी साधु राग-द्व ेष से परे हो गये | अपने घातक के प्रति भी उनमें करुणा और दया का भाव था। सभी मुनियों ने शुक्लध्यान रूपी अग्नि से कर्म रूपी घास-फूस को भस्म किया और क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर कोल्हू में पिलकर उन्होंने केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया ।
जब चार सौ निन्यानवे साधु पेले जा चुके तो अन्त में एक बालवय का साधु शेष रह गया । पापबुद्धि पालक को उस मुनि पर भी दया नहीं आई । वह उसे कोल्हू में पेलने ज्यों ही उद्यत हुआ कि धीर-गम्भीर स्कन्दाचार्य भी विचलित हो गये । पालक को ललकारते हुए बोले – “रे दुष्ट,
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