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७४ | सोना और सुगन्ध ___"राजा का निजी हित पीछे है, साम्राज्य और देश का हित पहले है। यदि यह सत्य है तो मेरे लिए साला और पत्नी कुछ भी नहीं हैं । तुम षड़यन्त्र का पता लगाओ। ऐसा म हो कि विलम्ब होने पर जो न होना चाहिए, वह हो जाए।"
पुरोहित बोला
"महाराज ! आप स्कन्दमुनि को पांच सौ साधुओं सहित उत्तर दिशा में स्थित उद्यान में ठहरा दोजिए। फिर कुछ राजपुरुषों को साथ लेकर मेरे साथ उस उद्यान में चलिए, जहाँ अव वह ढोंगी मुनि पाँच सौ साधु रूपी सैनिकों के साथ ठहरा है।" .. स्कन्दाचार्य को उत्तर दिशा में स्थित राजवाटिका में साधुओं सहित ससम्मान ठहरा दिया गया। राजा दण्डक को लेकर पुरोहित पालक खाली पड़ी राजवाटिका में पहुंचा। इधर-उधर खोज-बीन करते हुए उसने छिपे हुए अस्त्रशस्त्र राजा को दिखा दिये। राजा का सिर घूम गया। क्रोध से आग-बबूला हो गया। सच ही तो है, अविवेक का परदा जब आँखों पर पड़ जाता है तो चमकता हुआ सूर्य भी नहीं दिखाई देता-अपना हित-अहित भी नहीं दीखता । क्रोधाविष्ट राजा ने पुरोहित को आज्ञा दी
"पालक ! जो तुम उचित समझो, इस ढोंगी, पाखण्डी मुनि को उसके सभी साथी साधुओं सहित वही दण्ड दो। मेरी ओर से तुम्हें खुली छूट है। बाद में तुम्हें पुरस्कृत भी
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