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क्षमा और क्रोध का द्वन्द्व | ७३ राजा दण्डक राजमहिषी पुरन्दरयशा तथा राजपुरुषों सहित आया । नगर के स्त्री पुरुष भी आये । आचार्य ने स्थायी सुख को प्राप्ति हेतु आत्मतत्त्व का मर्म बताया। कष्टों और क्लेशों से मुक्ति का उपाय बताया। उनका धर्मोपदेश सुनकर सभी आनन्दित हुए। ___रात्रि को एकान्त पाकर पालक ने राजा दण्डक के कान भरे
"महाराज! आपके गृहस्थधर्म के नाते ये मुनि स्कन्द आपके साले हैं और अब पूरे साज और सेना...." इतना कहकर अपना रंग पक्का करने की दृष्टि से धूर्त पालक चुप हो गया । राजा ने उसे खुलकर बात कहने के लिए उकसाया-"हाँ, कहीं-कहो, रुक क्यों गए ? जो कुछ कहना है, निश्शंक भाव से कहो।" धूर्त पुरोहित फिर बोला. "महाराज ! राजनीति में राजा न किसी का शत्रु होता है, न मित्र। यह स्कन्द मुनि-वेश में रंगा सियार है। साधु होने से पहले यह राजपुत्र है। साधु बनकर बहनोई का राज्य हड़पने की इसने योजना बनाई है। इसके साथ पांच सौ साधु मात्र साधु ही नहीं, वरन् रण बाँकुरे सैनिक हैं। अवसर पाकर सशस्त्र क्रान्ति करके आपका राज्य हड़पने की इसको योजना है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं इसका परदाफाश करने का उद्योग
करूं ?"
राजा चिन्ता में पड़ गया और बोला
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