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७० | सोना और सुगन्ध
थो । स्वभाव से ही जन्मजात नास्तिक और दम्भी पुरोहित पालक ने धर्म - सिद्धान्तों पर प्रहार किये और अपने नास्तिक मत का प्रतिपादन किया। स्कन्दकुमार ने पालक के सभी तर्कों को धज्जियाँ उड़ा दीं। पालक को नास्तिकता का खण्डन कर धर्म का मण्डन किया । अधर्म पर धर्म को विजय से दरवार हर्षध्वनि से गूंज उठा । पाप-बुद्धि पालक अपनी इस हार से तिलमिला उठा । प्रतिशोध की आग में जलने लगा । स्कन्दकुमार के प्रति उसका क्रोध वर में बदल गया । पालक अपने भावों को छिपा गया और कुमार स्कन्द से बदला लेने की गाँठ बाँध ली। अवसर की तलाश में रहने लगा। सच ही है, जौंक गाय के थन से भी रक्त ही पीती है । पालक पुरोहित जितशत्रु की धर्मसभा से भी शत्रुता का बीज लेकर आया था । लौटकर पालक ने विचार किया, 'स्कन्दकुमार पुरन्दरयशा का भाई और राजा दण्डक का साला है। इन दोनों को उसका विरोधी कैसे बनाया जा सकता है ? लेकिन युक्ति और विचारपूर्वक योजना बनाने से सब सम्भव है । अवसर आने पर बहनोई दण्डक के द्वारा ही उसके साले स्कन्दकुमार का धर्माहंकार चूर-चूर करूंगा ।' यह विचार पालक के मन
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में पलता रहा ।
एक बार भगवान मुनिसुव्रत स्वामी विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में पधारे। नगरवासी तथा राजसमाजसभी भक्तिभावपूर्वक उनकी देशना सुनते एकत्र हुए ।
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