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________________ ६८ | सोना और सुगन्ध भी आज पर्व के दिन भी उपवास नहीं रख सका । मुझे धिक्कार है । धन्य हैं वे साधक जो चार-चार मास तक निराहार रहकर साधना करते हैं। मैं सचमुच कायर हूँ, भीरु हूँ...' कुरगडुक विचारों की ऊँची और ऊँची - उच्चतम भूमि पर चढ़ता गया । धर्मध्यान में लोन साधु कुरगडुक शुक्लध्यान में पहुँच गया। क्रोध, अहंकार आदि सभी कषाय भस्मीभूत हो गए। उसे आत्मदर्शन हुआ। शान्ति और निर्मलता की लहरें उठीं । केवलज्ञान का दिव्यालोक भीतर-बाहर जगमग करने लगा । देवताओं ने दुन्दुभिनाद किया और केवलज्ञानी मुनि कूरगडुक के जयघोष से धरा - आकाश - दोनों गूँज उठे । X X X अपने उग्र तप, अनशन व्रत का अहंकार करने वाले तथा नित्यभोजी, पेटू, भोजनभट्ट कहकर कूरगडुक का मजाक उड़ाने वाले सभी साधु - केवलज्ञानी मुनि कूरगडुक के सम्मुख श्रद्धा से नत हो गए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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