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भाव तपस्वी : कूरगडुक | ६७ पर्व के दिन तो उपवास रखते ही थे । मात्र एक तरगडुक आज भी इस सामान्य नियम का अपवाद था। सदैव की तरह आज भी उसने गुरु की आज्ञा ली और भिक्षा के लिए चल दिया। भिक्षा प्राप्त करके भिक्षापात्र लेकर खाने बैठ गया और शिष्टाचार का निर्वाह करते हुए उसने उपस्थित साधुओं से पूछा
"भन्ते ! आप में से जिसको जो आवश्यकता हो ले लोजिए और मुझे अनुगृहीत कीजिए-साहू हुज्जामि तारिओ।"
क्रूरगडुक का यह निवेदन बहुत ही सरल, सहज और स्वाभाविक था। पर एक साधु उसके इस कथन पर बहुत ही ऋद्ध हो गया-- __ "दुष्ट पामर ! आज पर्व के दिन भी तू बिना खाये नहीं रह सका ? जानता है कि आज छोटे-बड़े सभी साधु उपवासी हैं। फिर भी तू सबको भोजन दिखा रहा है। अरे पतित ! लानत है तेरे खाने पर।" ____ यह कहकर उस क्रुद्ध साधु ने 'थू-यू' करके ऐसा थूका कि थूक रगड़क के भोजन पर गिर पड़ा। पर वाह रे, क्षमा के साधक कूरगडुक ! कूरगडुक ने ऋद्ध साधु के चरण छुए और भोजन लेकर एकान्त में चला गया और अपने को धिक्कारने लगा... "मैं वास्तव में पतित हूँ । साधना-पथ का राही बनकर
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