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________________ ६६ | सोना और सुगन्ध भूरि-भूरि प्रशंसा को । पर इस भाव तपस्वी कुरगडुक के लिए शासन देवी की स्तुति और साधुओं की निन्दा में कोई अन्तर नहीं था । शासन देवी के इस अनहोने से लगने वाले व्यवहार को देखकर साधुओं ने कहा "देवी ! आज आप कैसे भ्रम में पड़ गई ? इतने संयमी और उग्र तपस्वी साधुओं को छोड़कर आप एक भोजनलिप्सी साधु की वन्दना करने लग गईं ?" शासन देवी ने मुस्कराकर कहा "भन्ते ! मैं भ्रम में नहीं हूँ, बल्कि आप सबका भ्रम दूर करने आई हैं। यह साधु आप सबमें श्रेष्ठ और घोर तपस्वी है | क्षमा का ऐसा साधक दूसरा नहीं है । इसके सभी कर्मों का क्षय हो चुका है। देखना, आज से सातवें दिन इसे केवलज्ञान प्राप्त होगा । " अपनी बात कहकर शासन देवी अन्तर्धान हो गई और साघुजन शंका- आशंका, विश्वास अविश्वास के झूले में झूलने लगे ww -- " इस नित्यभोजी को केवलज्ञान ?" वे शासन देवी की भूल का नाम लेकर सचमुच अपनी ही भूल पर मुस्कराने लगे । X x X सातवें दिन । यह दिन पर्व का दिन था। सभी साधुओं ने उपवास रखा था । उपवास रखने में असमर्थ साधु भो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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