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भाव तपस्वी : कूरगडुक | ६५
वे चारों साधु करगडुक को लक्ष्य करके आपस में कह रहे थे
"कैसा भोजनभट्ट है ? भिक्षा लाते ही भिक्षापात्र लेकर बैठ जाता है । घड़ी-भर का भी सन्तोष नहीं कर पाता । बड़ा पेटू है ।"
दूसरा साधु कहता
"यदि भोजन के बिना एक पहर भी नहीं रुका जाता तो संयम लेने की क्या आवश्यकता थी ?"
तीसरे ने व्यंग्य किया
"ऐसे भोजनभट्ट और असंयमी साधु ही तो संघ को बदनाम करते हैं ?”
चौथे ने अफसोस जाहिर किया
" अरे भाई ! ऐसा भी क्या भोजनभट्ट ? अष्टमीचतुर्दशी का व्रत तो गृहस्थ लोग भी कर लेते हैं ।"
साधुओं की इस उपहास - वार्त्ता को सुनकर भी कूरगडुक शान्त था, समभाव में लीन था । कूरगडुक सोच रहा था - 'साधु ठीक हो तो कहते हैं। मैं वास्तव में ही तो भोजनभट्ट हूँ । भोजन बिना तनिक भी नहीं रहा जाता । मैं कैसा साधु हूँ !'
एक कोने में सबसे अलग कूरगडक बैठा था । तभी शासन देवी ने उसकी वन्दना की और भक्तिभावपूर्वक
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