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६४ | सोना और सुगन्ध मटकायें-तुझे क्या ? तब माँ की वात मेरी समझ में नहीं आती थी। जब मैं बड़ा हो गया तो मुझे स्वयं अपने चिढ़ने की बात याद करके हँसी आने लगी। और बचपन में ही माँ मेरी स्तुति करके अपना काम बना लती थी। कहती थी-मेरा बेटा कितना अच्छा है, सब बातें मान लेता है, मेरे कहने से दूध भी पी लेता है। और मैं माँ की स्तुति से प्रभावित होकर झट दूध पी लेता था । तब निन्दा-स्तुति मुझे दोनों प्रभावित करती थीं, और अब वही घटनाएं मुझ कितनी हास्यास्पद लगती हैं । एक साधक के रूप में भी मैं अभी वालक ही तो हूँ, इसीलिए वचपन के साथियों की तरह संघ के साधुओं का मजाक मुझे अखरता है।'
इस तरह स्वचिन्तन से मुनि कूरगडुक ने निन्दा-स्तुति दोनों पर विजय पा ली। न स्तुति से उसे सुख मिलता
और न निन्दा से दुःख होता। क्षमा का आराधक मुनि कूरगडुक सचमुच क्षमा का आगार ही था।
एक बार गुरु ने अपने संघ सहित विहार किया और चम्पानगरी पहुँचे । नित्य की तरह आज भा कूरगडुक ने भिक्षापात्र से भोजन निकालकर भोजन किया। संघ में एक मास से चार मास तक का व्रत करने वाले चार साधु थे। उन्हें कूरगडुक को भोजन-लिप्सा बहुत अखरती थी।
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