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भाव तपस्वी : कूरगडुक | ६३
वह भोजन करता और साथ ही क्षमा का अभ्यास भी
करता जाता ।
पुराने समय में 'गडुक' एक माप चलता था । एक गडुक भरकर भात खाने पर ही उसे तृप्ति मिलती । 'कुर' भात का पर्याय है । इस प्रकार गडुक भरकर भात या कूर खाने के कारण उस साधु का नाम 'कूरगडुक' पड़ गया । संघ के सभी साधु विशालानगरी के नवदीक्षित राजकुमार को मुनि कुरगडुक कहकर ही पुकारते । नित्य भोजन करने के कारण कूरगडुक सभी साधुओं के लिए हेय और उपेक्षित था । प्रायः उसे धिक्कार मिला करती । 'नित्यभोजी' और 'भोजन भट्ट' कहकर सभी साधु कूरगडुक का मजाक उड़ाया करते थे, पर उसने क्रोध को जीत लिया था - क्षमा का आराधक था वह नित्यभोजी साधक । निन्दा-स्तुति में उसके लिए कोई भेद नहीं था ।
प्रारम्भ के दिनों में कूरगडुक को अपना उपहास अखरा । पर तभी गुरु का उद्बोधन याद आया....फिर भी उसे अपना मजाक अच्छा नहीं लगा । कूरगडुक ने विचार किया -- 'बचपन में मैं अपने साथियों के साथ खेला करता था । साथी लोग मेरी तरफ जीभ निकालते थे, मुँह मटकाते थे और तरह-तरह से मुझे चिढ़ाते थे। मैं मां से कहता तो माँ मुझे समझाती - बेटे तू क्यों चिढ़ता है, उनके जीभ निकालने और मुँह मटकाने का तुझ पर क्या असर ? मुँह उनका जीभ उनकी – वे उसे तोड़-मरोड़ें,
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